या महिन्याच्या मुंबई ग्राहक पंचायतीद्वारे प्रकाशित होण्यार्या "ग्राहकहिताय" मध्ये खालील कविता प्रकाशित झालेली आहे. ती त्यांनी "ॠषि प्रसाद" च्या जानेवारी २००८ च्या अंकातुन घेतली आहे व कवि आहेत श्री. गिरीश कुमार जोशी, उदयपुर, राजस्थान. कविता सामान्यांच्या फायद्यासाठी व कोला भक्तांना ईशारा देणारी असल्यामूळे कवि किंवा प्रकाशकाच्या परवानगीशिवाय येथे देत आहे.
लहर नहीं जहर हूं मै....
पेप्सी बोली कोका कोला !
भारत का इंन्सान है भोला ।
विदेश से मै आयी हूं,
साथ मौत को लायी हूं ।
लहर नही जहर हूं मै,
गुर्दों पर बढता कहर हूं मैं ।
मेरी पीएच दो पॉइन्ट सात,
मुझमें गिरकर गल जायें दॉंत ।
झिंक आर्सेनिक लेड हूं मैं,
काटे ऑंतों को वो ब्लेड हूं मैं ।
मुझसे बढती एसिडीटी,
फिर क्यों पीते भैया - दीदी ?
ऎसी मेरी कहानी हैं,
मुझसे अच्छा तो पानी हैं ।
दूध दवा है, दूध दूवा है,
मैं जहरीला पानी हूं ।
हॉं, दूध मुझसे सस्ता है,
फिर पीकर मुझको क्यों मरता है ?
५४० करोड कमाती हूं,
विदेश में ले जाती हूं ।
शिव ने भी ना जहर उतारा,
कभी अपने कण्ठ के नीचे ।
तुम मूर्ख नादान हो यारो !
पडे हुए हो मेरे पीछे ।
देखो इन्सां लालच में अंधा,
बना लिया है मुझको धंधा ।
मैं पहुंची हूं आज वहॉं पर,
पीने का नहीं पानी जहॉं पर ।
छोडो नकल अब अकल से जीयो,
जो कुछ पीना सॅंभल के पीयो ।
इतना रखना अब तुम ध्यान,
घर आयें जब मेहमान ।
इतनी तो तुम रस्म निभाना,
उनको भी कुछ कसम दिलाना ।
दूध जूस गाजर रस पीना,
डालकर छाछ मे जीरा पुदीना ।
अननास आम का अमृत,
बेदाना बेलफल का शरबत ।
स्वास्थवर्धक नींबू का पानी,
जिसका नही है कोई सानी ।
तुम भी पीना और पिलाना,
पेप्सी नहीं अब घर में लाना ।
अब तो समझो मेरे बाप,
मेरे बचे स्टॉक से करो टॉयलेट साफ ।
नहीं तो होगा वो अंजाम,
कर दूंगी मैं काम तमाम ।